Thursday 13 August 2020

13 अगस्त- जयंती महान हिंदू योद्धा दुर्गादास राठौड़ जी. औरंगजेब की हत्यारी फौज का वध कर के दफ़न कर दिया था मारवाड़ की पवित्र भूमि में

Source :  https://www.sudarshannews.in/news-detail.aspx?id=5031 



भारत की भूमि पर धर्म की रक्षा करने वाले, मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्योछाबर करने वाले अनेक योद्धाओं और महायोद्धाओं ने जन्म लिया है. अपने दुश्मन को धूल चटाकर विजयश्री हासिल करने वाले इन योद्धाओं ने कभी अपने प्राणों की परवाह नहीं की, लेकिन इसके बाद भी इन योद्धाओं को इतिहास में स्थान नहीं मिल सका. शायद इसके पीछे ये वजह रही होगी कि अगर हिंदुत्व का ये गौरवशाली इतिहास बाहर आ गया, अगर हिन्दुओं ने अपने पूर्वजों के इस महानतम इतिहास को पढ़ लिया तो शायद विधर्मी ताकतें हिन्दुस्थान में अपनी जगह नहीं बना पाएंगी.

सनातनी इतिहास के ऐसे ही एक योद्धा थे, राष्ट्रवीर दुर्गादास राठौड़. वो दुर्गादास राठौड़ जिन्होंने इस देश का इस्लामीकरण करने की मुगल आक्रान्ता औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी. वीर दुर्गादास राठौड़  भारतीय इतिहास मे एक बहुत ही अविस्मरणीय नाम है. वीर दुर्गादास राठौड का जन्म मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर 13 अगस्त 1638 को हुआ था. भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है. भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है.

दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं. इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है,जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाटी सेंकता है. वे अपने युग में जीवन्त किंवदंती बन गए थे, आज भी उसी रूप में लोक कण्ठहार बने हुए हैं, सनातन की जीवंत प्रेरणा बने हुए हैं.  

दुर्गादास मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंतसिंह के मंत्री आसकरण जी के पुत्र थे. उनका सम्बन्ध राठौड़ों की करणोत शाखा से था. आसकरण मारवाड़  के शासक गजसिंह और उनके पुत्र जसवंतसिंह के प्रिय रहे और प्रधान पद तक पहुँचे. उनके तीन पुत्र थे- खेमकरण, जसकरण और दुर्गादास. पिता आसकरण की भांति किशोर दुर्गादास में भी वीरता कूट- कूट कर भरी थी. सन् 1655 की घटना है, जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राजकीय राईका (ऊंटों का चरवाहा) लुणावा में आसकरण जी के खेतों में घुस गए. किशोर दुर्गादास के विरोध करने पर भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, वीर दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर त्वरित गति से उस राज राईका की गर्दन उड़ा दी.

इस बात की सूचना महाराज जसवंत सिंह के पास पहुंची तो वे उस वीर को देखने के लिए उतावले हो उठे और अपने सैनिकों को दुर्गादास को लाने का आदेश दिया. दरबार में महाराज उस वीर की निर्भीकता देख अचंभित रह गए. दुर्गादास ने कहा कि मैंने अत्याचारी और दंभी राईका को मारा है, जो महाराज का भी सम्मान नहीं करता है और किसानों पर अत्याचार करता है. आसकरण ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भयता से स्वीकारते देखा तो वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए. परिचय पूछने पर महाराज जसवंत को मालूम हुआ कि यह आसकरण का पुत्र है. घटना की वास्तविकता को जानकर महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और तलवार भेंट कर अपनी सेना में शामिल कर लिया.

कालांतर में महाराजा जसवंत सिंह दिल्ली के मुग़ल लुटेरे औरंगजेब से मैत्री स्थापित हुई और वे प्रधान सेनापति बने. फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी. वह हमेशा जोधपुर को हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था. सन् 1659 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ हुए विद्रोह को दबाने के लिए जसवंत सिंह को भेजा गया. दो वर्ष तक विद्रोह को दबाने के बाद जसवंत सिंह काबुल (अफ़गानिस्तान) में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही 1678 ई. में वीर गति को प्राप्त हुए. उस समय उनका कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं था. औरंगजेब ने मौके का फायदा उठाते हुए मारवाड़ में अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न किया.

औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा. देखते ही देखते शहर को उजाड़ बना दिया गया. लोग भय और आतंक के कारण शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे. उन्होंने जज़िया कर भी लगा दिया. राजधानी जोधपुर सहित सारा मारवाड़ तब अनाथ हो गया था. ऐसे संकटकाल में दुर्गादास राठौड़ कुँवर अजीतसिंह के संरक्षक बने. दुर्गादास ने स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह की विधवा महारानी तथा उसके नवजात शिशु (जोधपुर के भावी शासकअजीतसिंह) को औरंगजेब की कुटिल चालों से बचाया. दिल्ली में शाही सेना के पंद्रह हजार सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास परिवार सुरक्षित पहुंचाने में वीर दुर्गादास राठौड़ सफल हो गए.

इससे क्रूर औरंगजेब तिलमिला उठा और उनको पकड़ने के लिए उसने मारवाड़ के चप्पे-चप्पे को छान मारा. यही नहीं उसने वीर दुर्गादास राठौड़ और अजीतसिंह को जिंदा या मुर्दा लाने वालों को भारी इनाम देने की घोषणा की थी. इधर दुर्गादास भी मारवाड़ को आजाद कराने और अजीतसिंह को राजा बनाने की प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने में जुट गए थे. दुर्गादास जहां राजपूतों को संगठित कर रहे थे वहीं औरंगजेब की सेना उनको पकड़ने के लिए सदैव पीछा करती रहती थी. कभी-कभी तो आमने-सामने मुठभेड़ भी हो जाती थी. ऐसे समय में दुर्गादास की दुधारी तलवार और बर्छी कराल-काल की तरह रणांगण में मुगलों के नरमुंडों का ढेर लगा देती थी.

मारवाड़ के स्वाभिमान को नष्ट करने के लिए जोमुग़ल रणनीति तैयार हुई थी, उसे साकार होनादुर्गादास राठौड़ जैसे महान् स्वातन्त्र्य वीर, योद्धा और मंत्री के रहते कैसे सम्भव था? बहुत रक्तपात के बाद भी मुग़ल सेना सफल न हो सकी. अजीत सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर औरंगजेब ने अजीतसिंह की हत्या की ठान ली, औरंगजेब के षड्यंत्र को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और अपने साथियों की मदद से स्वांग रचाकर अजीतसिंह को दिल्ली से निकाल लाये. वे अजीतसिंह के पालन पोषण की समुचित व्यवस्था के साथ जोधपुर राज्य के लिए होने वाले औरंगजेब द्वारा जारी षड्यंत्रों के खिलाफ निरंतर लोहा लेते रहे.

अजीतसिंह के बड़े होने के बाद राजगद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता और स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी, औरंगजेब की ताकत और प्रलोभन दुर्गादास को डिगा न सके. जोधपुर की स्वतंत्रता के लिए दुर्गादास ने लगभग पच्चीस सालों तक संघर्ष किया, किंतु अपने मार्ग से च्युत नहीं हुए. उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को न केवल चुनौती दी, कई बार औरंग़ज़ब को युद्ध में पीछे हटाकर संधि के लिए मजबूर भी किया. उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज की छापामार युद्ध भी लड़े और निरन्तर मारवाड़ के कल्याण के लिए शक्ति संचय करते रहे. मारवाड़ के मुक्ति संग्राम के वे सबसे बड़े नायक थे. दुर्गादास राठौड़ के पराक्रम से औरंगजेब बेनूर हो जाता था और दिल्ली की मुगल सल्तनत भी भयाक्रांत हो जाती थी.

दुर्गादास राठौड़ के बारे में कहा जाता है कि उनका खाना-पीना यहाँ तक कि रोटी बनाना भी कभी-कभी तो घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे ही होता था. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी जोधपुर के दरबार में लगा वह विशाल चित्र देता है,  जिसमें दुर्गादास राठौड़ को घोड़े की पीठ पर बैठे एक श्मशान भूमि की जलती चिता पर भाले की नोक से आटे की रोटियां सेंकते हुए दिखाया गया है. डा. नारायण सिंह भाटी ने 1972 में मुक्त छंद में राजस्थानी भाषा के प्रथम काव्य दुर्गादास में इस घटना का चित्रण किया है–

तखत औरंग झल आप सिकै,  सूर आसौत सिर सूर सिकै, चंचला पीठ सिकै पाखरां-पाखरां,  सैला असवारां अन्न सिकै।।

अर्थात् औरंगजेब प्रतिशोध की अग्नि में अंदर जल रहा है. आसकरण के शूरवीर पुत्र दुर्गादास का सिर सूर्य से सिक रहा है अर्थात् तप रहा है. घोड़े की पीठ पर निरंतर जीन कसी रहने से घोड़े की पीठ तप रही है. थोड़े से समय के लिए भी जीन उतारकर विश्राम देना संभव नहीं है. न खाना पकाने की फुरसत, न खाना खाने की. घोड़े पर चढ़े हुए ही भाले की नोक से सवार अपनी क्षुधा की शांति के लिए खाद्य सामग्री सेंक रहे हैं.

अफ़सोस इतना है कि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा. कहा जाता है कि कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ महाराज अजीतसिंह के कान भर दिए थे, जिससे महाराज अजीत सिंह दुर्गादास से अनमने रहने लगे. इसे देखकर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना उचित समझा और वे मालवा चले गए. वहीं  उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे. दुर्गादास कहीं के राजा या महाराजा नहीं थे, परंतु उनके उज्ज्वल चरित्र की महिमा इतनी ऊंची है कि वे कितने ही भूपालों से ऊंचे हो गये और उनका यश तो स्वयं उनसे भी ऊंचा उठ गया.

वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 को पुण्य नगरी उज्जैन में हुआ और अन्तिम संस्कार उनकी इच्छानुसार उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर किया गया था, जहाँ स्थापित उनकी मनोहारी छत्री आज भी भारत के इस अमृत पुत्र की कीर्ति का जीवन्त प्रतीक बनी हुई है. इस स्मारक की वास्तुकला राजपूत शैली में है तथा एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है. लाल पत्थर से निर्मित इस छत्री पर दशावतार, मयूर आदि को अत्यंत कलात्मकता के साथ उकेरा गया है. आसपास का परिदृश्य प्राकृतिक सुषमा से भरपूर है, इसलिए यह स्मारक एक छोटे से रत्न की तरह चमकता है. दुर्गादास की इस पावन देवली पर दुर्गादास जयन्ती आयोजन के साथ ही समय समय अनेक देशप्रेमी मत्था टेकने के लिए आते हैं.

दुर्गादास ने अपूर्व पराक्रम, बलिदानी भावना, त्यागशीलता, स्वदेशप्रेम और स्वाधीनता का न केवल प्रादर्श रचा, वरन् उसे जीवन और कार्यों से साक्षात् भी कराया. उनके जैसे सेनानी के अभाव में न भारत की संस्कृति और सभ्यता रक्षा संभव थी और न ही आजाद भारत की संकल्पना संभव थी. ये निर्विवाद सत्य है कि अगर उस दौर में वीर दुर्गादास राठौर,छत्रपति शिवाजी,वीर गोकुल,गुरु गोविन्द सिंह,बंदा सिंह बहादुर जैसे शूरवीर पैदा नहीं होते तो पुरे मध्य एशिया,ईरान की तरह भारत का पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता और हिन्दू धर्म का नामोनिशान ही मिट जाता. भारत सरकार वीर दुर्गादास राठौड़ के सिक्के और स्टाम्प पोस्ट भी जारी कर चुकी है.

Tuesday 25 December 2018

महाराजा सूरजमल बलिदान दिवस

हिन्दू राजा महाराजा सूरजमल जाट के बलिदान दिवस 25 दिसम्बर पर कोटिशः कोटिश: नमन ।

एकमात्र सूरजमल महाराज ही ऐसे हिन्दू राजा हुए हैं जिनके भय से मुस्लिम बादशाहों ने अपने अपने राज में भी गौहत्या पर रोक लगा दी थी ( 1759 अवध के नवाब मीर बक्शी ने सूरजमल को पत्र लिखकर कहा था कि उनके राज में कभी कोई गौहत्या नहीं की जाएगी )

एकमात्र सूरजमल ही ऐसे हिन्दू शासक हुए है जिनकी मृत्यु पर उनके पास पूरे हिन्दुस्तान के राजा महाराओं बादशाहों नवाबों की बजाय ज्यादा आधुनिक और बड़ा शस्त्रागार था । एकमात्र सूरजमल ही ऐसे धनी हिन्दू राजा हुए हैं जिनकी मृत्यु के समय उनके राजकोष में संपूर्ण ऐशिया का सबसे ज्यादा धन था ।

एकमात्र महाराजा सूरजमल ही ऐसे हिन्दू राजा हुए हैं जिन्होंने मोतीडूंगरी की लड़ाई में सात राजाओं की सामूहिक 1 लाख की सेना को अपने 10 हजार सैनिकों से हरा दिया था ।

एकमात्र महाराजा सूरजमल ही ऐसे हिन्दू नरेश हुए हैं जिनकी भरतपुर रियासत पर न तो कभी मुगल जीत हासिल कर सके और न ही अंग्रेज ।

एकमात्र महाराजा सूरजमल ही ऐसे हिन्दू धर्मरक्षक हुए हैं जिनके बेटे ने अजान देने पर एक मौलवी की जीभ निकलवा दी थी।

एकमात्र महाराजा सूरजमल ही ऐसे राजा हुए है जिनके बेटे ने दिल्ली जीत ली थी ।

एकमात्र महाराजा सूरजमल ही ऐसे कुशल हिन्दू नेतृत्व करने वाले शासक हुए है कि युद्ध के मैदान में उनके साथ आम प्रजाजन भी अपने अपने हथियार लेकर युद्ध मे शामिल होते थे,

एकमात्र महाराजा सूरजमल ही ऐसे हिन्दू शासक हुए है जिन्होंने मराठो से परस्पर द्वेषभाव होने पर भी द्वेष व जातिवाद से उठकर एक सच्चा हिन्दू बनकर उनका निस्वार्थ भाव से साथ दिया।

एकमात्र भरतपुर नरेश महाराजा सूरजमल ही ऐसे हिन्दू राजा हुए है जिसका मात्र कूटनीतिक पत्र पढ़ने से अब्दाली वापिस अफगानिस्तान लौट गया ।

एकमात्र महाराजा सूरजमल ही ऐसे हिन्दू राजा हुए हैं जिनको बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय ने "हिन्दू धर्मरक्षक" कहकर संबोधित किया ।

महाराजा सूरजमल उन कुछेक चुनिन्दा महायोद्धाओं में से ऐसा महायोद्धा हुए हैं जिनकी प्रतिमा दिल्ली बिड़ला मंदिर में मदनमोहन मालवीय ने लगवाई है।

अतः हिन्दू धर्म के उस महान शासक एंव वीर शिरोमणि महाराजा सूरजमल को उनके बलिदान दिवस पर कोटि कोटि नमन।

Sunday 10 June 2018

बन्दा बैरागी - Birthday - 27 Oct-1670

एक निर्भीक योद्धा : वीर बन्दा बैरागी


वीर बन्दा बैरागी का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 को ग्राम तच्छल किला, पु॰छ में श्री रामदेव जी के घर में एक राजपूत परिवार में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था। युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उनके मन में वैराग्य जाग उठा।
उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ (महाराष्ट्र) में कुटिया बनाकर रहने लगे।

आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना करके गुरु गोविंद सिंह दक्षिण चले गये थे। संयोगवश उनकी भेंट माधवदास से हो गई। गुरु जी ने उन्हें उत्तरी हिन्दुस्थान की दुर्दशा के बारे में बताया तथा पलायनवाद का मार्ग छोड़कर इस कठिन समय में माधवदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त मुस्लिम आतंक से जूझने को कहा। इस भेंट से माधवदास का जीवन बदल गया। गुरुजी ने उन्हें “बन्दा बैरागी बहादुर सिंह’ नाम दिया। फिर प्रतीक स्वरूप एक तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और पंजाब में अपने शिष्यों के नाम एक (हुक्मनामा) देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा और शिष्यों को इस धर्मयुद्ध में सहयोग करने को कहा।

बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये।
पंजाब में हिन्दुओं ने वीर बन्दा बैरागी को अपने सिपहसालार तथा गुरु गोविंद सिंह के प्रतिनिधि के तौर पर स्वागत किया।

एक के बाद एक वीर बन्दा बैरागी ने मुग़ल शासकों को उनके अत्याचारों और नृशंसता के लिये सजा दी।
उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा।
फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा।
शिवालिक घाटी में स्थित मुखलिसपुर को उन्होनें अपना मुख्य स्थान बनाया। अब वीर बन्दा बैरागी और उनके दल के चर्चे स्थानीय मुग़ल शासकों और सैनिकों के दिल में सिहरन पैदा करने लगे थे।
इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।

उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया। वीर बन्दा बैरागी को साथियों समेत मुग़ल सेना ने आठ मास तक अपने घेरे में रखा। साधनों की कमी के कारण उनका जीवन दूभर हो गया था और केवल उबले हुए पत्ते, पेड़ों की छाल खाकर भूख मिटाने की नौबत आ गई थी। सैनिकों के शरीर अस्थि-पिंजर बनने लगे थे। फिर भी वीर बन्दा बैरागी और उनके सैनिकों ने हार नहीं मानी। किन्तु कुछ गद्दारों के विश्वासघात से 17 दिसम्बर 1715 को उन्हें पकड़ लिया गया।
उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्द कर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। उनके साथ बन्दा के वे 740 साथी भी थे।
काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा किन्तु सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।
बंदी बनाये गये सिखों में से 200 के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।
दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है,वहाँ 7 मार्च 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी। एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा – तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है।
बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया – मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है।

बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया।
भयभीत करने के लिए नौ जून 1716 को उनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया।
बन्दा ने इससे इन्कार कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का माँस बन्दा के मुँह में ठूँस दिया पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे।
गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी। तब भी जीवित रहने के कारण उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया।

इस प्रकार बन्दा वीर बैरागी अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलिपथ पर चल दिये।

शत शत नमन 🙏🙏

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बटुकेश्वर दत्त - Birthday 18 November 1910

बटुकेश्वर दत्त !!

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नाम याद है या भूल गए ??
हाँ, ये वही बटुकेश्वर दत्त हैं जिन्होंने भगतसिंह के साथ दिल्ली असेंबली में बम फेंका था और गिरफ़्तारी दी थी।
अपने भगत  पर तो जुर्म संगीन थे लिहाज़ा उनको सजा-ए-मौत दी गयी । पर बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास के लिए काला पानी (अंडमान निकोबार) भेज दिया गया और मौत उनको करीब से छू कर गुज़र गयी।  वहाँ जेल में भयंकर टी.बी. हो जाने से मौत फिर एक बार बटुकेश्वर पर हावी हुई लेकिन वहाँ भी वो मौत को गच्चा दे गए। कहते हैं जब भगतसिंह, राजगुरु सुखदेव को फाँसी होने की खबर जेल में बटुकेश्वर को मिली तो वो बहुत उदास हो गए।
इसलिए नहीं कि उनके दोस्तों को फाँसी की सज़ा हुई,,, बल्कि इसलिए कि उनको अफसोस था कि उन्हें ही क्यों ज़िंदा छोड़ दिया गया !
1938 में उनकी रिहाई हुई और वो फिर से गांधी जी के साथ आंदोलन में कूद पड़े लेकिन जल्द ही फिर से गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए और वो कई सालों तक जेल की यातनाएं झेलते रहे।
बहरहाल 1947 में देश आजाद हुआ और बटुकेश्वर को रिहाई मिली। लेकिन इस वीर सपूत को वो दर्जा कभी ना मिला जो हमारी  सरकार और भारतवासियों से इसे मिलना चाहिए था।
आज़ाद भारत में बटुकेश्वर नौकरी के लिए दर-दर भटकने लगे। कभी सिगरेट बेची तो कभी टूरिस्ट गाइड का काम करके पेट पाला। कभी बिस्किट बनाने का काम शुरू किया लेकिन सब में असफल रहे।
 कहा जाता है कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे ! उसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया ! परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने इस 50 साल के अधेड़ की  पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं..!!!  भगत के साथी की इतनी बड़ी बेइज़्ज़ती भारत में ही संभव है।
हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी ! 1963 में उन्हें विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया । लेकिन इसके बाद वो राजनीति की चकाचौंध से दूर  गुमनामी में जीवन बिताते रहे । सरकार ने इनकी कोई सुध ना ली।
1964 में जीवन के अंतिम पड़ाव पर बटुकेश्वर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में कैंसर से जूझ रहे थे तो उन्होंने अपने परिवार वालों से एक बात कही थी-
"कभी सोचा ना था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था उसी दिल्ली में एक दिन इस हालत में स्ट्रेचर पर पड़ा होऊंगा।"
इनकी दशा पर इनके मित्र चमनलाल ने एक लेख लिख कर देशवासियों का ध्यान इनकी ओर दिलाया कि-"किस तरह एक क्रांतिकारी  जो फांसी से बाल-बाल बच गया जिसने कितने वर्ष देश के लिए कारावास भोगा , वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।"
बताते हैं कि इस लेख के बाद सत्ता के गलियारों में थोड़ी हलचल हुई ! सरकार ने इन पर ध्यान देना शुरू किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
भगतसिंह की माँ भी अंतिम वक़्त में उनसे मिलने पहुँची।
भगतसिंह की माँ से उन्होंने सिर्फ एक बात कही-"मेरी इच्छा है कि मेरा अंतिम संस्कार भगत की समाधि के पास ही किया जाए।उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई.
17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया !
भारत पाकिस्तान सीमा के पास पंजाब के हुसैनीवाला स्थान पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के साथ ये गुमनाम शख्स आज भी सोया हुआ है।
मुझे लगता है भगत ने बटुकेश्वर से पूछा तो होगा- दोस्त मैं तो जीते जी आज़ाद भारत में सांस ले ना सका, तू बता आज़ादी के बाद हम क्रांतिकारियों की क्या शान है भारत में।"
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